भारत में प्रेस का सफर: प्रिंटिंग प्रेस से डिजिटल युग तक

भारत में प्रेस का सफर: औपनिवेशिक बेड़ियों से डिजिटल युग की चुनौतियों तक

भारत में प्रेस का इतिहास एक ऐसी गाथा है जो सत्ता के दमन, स्वतंत्रता की चाह और लोकतंत्र के विकास को एक साथ बयां करती है। यह केवल छपाई मशीनों या समाचार पत्रों की कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसी यात्रा है जो सामाजिक जागरूकता, राष्ट्रीय चेतना और तकनीकी क्रांति से जुड़ी है। पुर्तगाली मिशनरियों के पहले प्रिंटिंग प्रेस से लेकर आज के डिजिटल युग तक, भारतीय प्रेस ने औपनिवेशिक नियंत्रण, स्वतंत्रता संग्राम और आधुनिक चुनौतियों का सामना किया है। यह संपादकीय उस ऐतिहासिक सफर को विस्तार से देखता है, वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करता है और भविष्य के लिए सुझाव प्रस्तुत करता है।

शुरुआती कदम: धार्मिक छाप से औपनिवेशिक टकराव तक
भारत में प्रेस की शुरुआत 1556 में गोवा में हुई, जब पुर्तगाली मिशनरियों ने पहला प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया। इसका उद्देश्य ईसाई धार्मिक ग्रंथों को छापना था, और अगले सदी तक इसका उपयोग इसी सीमित दायरे में रहा। लेकिन 18वीं सदी के अंत में प्रेस ने नया रूप लिया। 29 जनवरी, 1780 को जेम्स ऑगस्टस हिकी ने कलकत्ता से *हिकीज़ बंगाल गजट* या *कलकत्ता जनरल एडवर्टाइज़र* शुरू किया—यह भारत का पहला समाचार पत्र था। यह अखबार ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों की भ्रष्टाचार और अत्याचार की आलोचना के लिए जाना गया। हालांकि, इसकी बेबाकी ने ब्रिटिश सरकार को असहज कर दिया, और 1782 में इसे जब्त कर लिया गया। यह प्रेस और सत्ता के बीच पहला बड़ा टकराव था, जिसने भविष्य के संघर्षों की नींव रखी।

#### 19वीं सदी: सेंसरशिप, सुधार और विद्रोह
1800 का दशक भारतीय प्रेस के लिए चुनौतियों और बदलाव का दौर था। 1799 में लॉर्ड वेलेजली ने *सेंसरशिप ऑफ प्रेस एक्ट* लागू किया, जिसके तहत हर प्रकाशन को छपाई से पहले ब्रिटिश सरकार की मंजूरी लेनी पड़ती थी। यह कदम भारतीय जनमानस को नियंत्रित करने की कोशिश थी। फिर भी, प्रेस ने अपनी राह बनाई। 1818 में मिशनरियों ने बंगाली भाषा में *समाचार दर्पण* शुरू किया, जो पहला स्थानीय भाषा का समाचार पत्र था। इसके बाद 1822 में गुजराती में *मुंबई समाचार* और 1826 में हिंदी में *उदंत मार्तंड* ने क्षेत्रीय पत्रकारिता की नींव रखी।

लेकिन ब्रिटिश शासन ने इसे बर्दाश्त नहीं किया। 1823 में लॉर्ड हेस्टिंग्स के नेतृत्व में लाइसेंसिंग नियम लागू किए गए, जिसके चलते राजा राम मोहन राय का फारसी अखबार *मिरात-उल-अखबार* बंद हो गया। राहत तब मिली जब 1835 में गवर्नर-जनरल सर चार्ल्स मेटकाफ ने प्रेस नियमों को उदार बनाया। इस सुधार ने समाचार पत्रों की संख्या में तेजी से इजाफा किया—1835 से 1850 तक अकेले बंगाल में 50 से अधिक अखबार शुरू हुए। मेटकाफ को “प्रेस का मुक्तिदाता” कहा गया, लेकिन यह आजादी ज्यादा दिन नहीं टिकी। 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार ने *लाइसेंसिंग एक्ट* लागू किया, जिसने प्रेस पर फिर से शिकंजा कस दिया। 1878 में लॉर्ड लिटन का *वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट* भारतीय भाषाओं के अखबारों को दबाने का हथियार बना, जिसे “गैगिंग एक्ट” के नाम से भी जाना गया। इस कानून के तहत 100 से अधिक प्रकाशकों पर जुर्माना और कारावास का दंड दिया
20वीं सदी: स्वतंत्रता का मंच और आजादी की राह
20वीं सदी में प्रेस स्वतंत्रता संग्राम का सबसे मजबूत हथियार बन गया। महात्मा गांधी ने *यंग इंडिया* और *हरिजन* जैसे अखबारों के जरिए जनता को जागृत किया, तो बाल गंगाधर तिलक ने *केसरी* और *मराठा* से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। लेकिन सत्ता ने जवाबी हमला बोला। 1910 के *इंडियन प्रेस एक्ट* के तहत 1,000 से अधिक प्रकाशनों को दंडित किया गया, जिसमें 500 से ज्यादा जब्तियां शामिल थीं। 1931 में गांधीजी के नमक सत्याग्रह के दौरान *प्रेस इमरजेंसी एक्ट* ने सेंसरशिप को और सख्त कर दिया। फिर भी, प्रेस ने हार नहीं मानी।

1947 में आजादी के बाद संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षित किया, हालांकि “उचित प्रतिबंधों” का प्रावधान भी जोड़ा गया। 1966 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का गठन हुआ, जिसका उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता और नैतिकता को संतुलित करना था। लेकिन इसके पास दंडात्मक शक्तियां न होने से इसकी प्रभावशीलता सीमित रही। 1975 के आपातकाल में इंदिरा गांधी सरकार ने प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी, जिसमें 250 से अधिक पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया और 70 से ज्यादा अखबारों पर प्रतिबंध लगा। यह दौर प्रेस की आजादी के लिए सबसे काला अध्याय था।

डिजिटल युग: अवसरों के साथ संकट
21वीं सदी में प्रेस ने तकनीकी क्रांति को अपनाया। 1995 में *केबल टेलीविजन नेटवर्क्स एक्ट* ने टीवी प्रसारण को नियमित किया, जिसके बाद 1990 के दशक में निजी समाचार चैनलों की बाढ़ आ गई। 2000 के दशक में इंटरनेट ने डिजिटल पत्रकारिता को जन्म दिया। आज, मार्च 20, 2025 तक, भारत में 1,00,000 से अधिक पंजीकृत प्रकाशन हैं—इनमें 80,000 प्रिंट प्रकाशन, 900 से अधिक टीवी चैनल और अनगिनत डिजिटल प्लेटफॉर्म शामिल हैं। 2021 के *आईटी नियमों* ने ऑनलाइन समाचार और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स को नियंत्रित करने की कोशिश की, जिसमें सोशल मीडिया मध्यस्थों को जवाबदेह बनाने का प्रावधान था।

लेकिन यह विस्तार चुनौतियां भी लाया। *वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2024* में भारत 180 देशों में 159वें स्थान पर है। पिछले पांच साल में 13 पत्रकारों की हत्या और 200 से अधिक पर हमले दर्ज किए गए। गलत सूचना का प्रसार भी बड़ा संकट है—2024 में 65% भारतीयों ने कहा कि वे सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों से परेशान हैं। कॉर्पोरेट और सरकारी दबाव ने भी प्रेस की निष्पक्षता को खतरे में डाला है।

आज की स्थिति: प्रेस का संकट और संभावनाएं
मार्च 20, 2025 को भारतीय प्रेस एक दोराहे पर खड़ा है। एक ओर यह दुनिया का सबसे बड़ा समाचार बाजार है, जहां 500 मिलियन से अधिक लोग रोजाना समाचार उपभोग करते हैं। दूसरी ओर, यह अभूतपूर्व दबाव का सामना कर रहा है। हाल के महीनों में पत्रकारों पर मानहानि के मुकदमों में 30% की बढ़ोतरी हुई है, और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर सेंसरशिप की मांग तेज हुई है। फिर भी, प्रेस की ताकत बरकरार है—2024 में investigative रिपोर्टिंग ने भ्रष्टाचार के 50 से अधिक मामलों को उजागर किया।
20वीं सदी: स्वतंत्रता का मंच और संवैधानिक ढांचा
20वीं सदी में प्रेस स्वतंत्रता संग्राम का हथियार बना। गांधीजी के यंग इंडिया और तिलक के केसरी ने जनता को जागृत किया। लेकिन 1910 के इंडियन प्रेस एक्ट ने 1,000 से अधिक प्रकाशनों को दंडित किया, और 1931 के प्रेस इमरजेंसी एक्ट ने सेंसरशिप को सख्त किया। आजादी के बाद, 26 नवंबर 1949 को संविधान स्वीकार किया गया और 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ। इसमें प्रेस से जुड़े कई महत्वपूर्ण अनुच्छेद शामिल हैं:

अनुच्छेद 19(1)(a) (26 जनवरी 1950): अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जिसमें प्रेस की आजादी शामिल है। यह मूल अधिकार 1949 में संविधान सभा द्वारा स्वीकृत हुआ, लेकिन अनुच्छेद

19(2) “उचित प्रतिबंधों” की अनुमति देता है।
अनुच्छेद 13 (26 जनवरी 1950): मौलिक अधिकारों के खिलाफ कानूनों को शून्य घोषित करता है। यह प्रेस के लिए कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।

अनुच्छेद 32 (26 जनवरी 1950): मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका का अधिकार, जिसने प्रेस को कई बार राहत दी।

अनुच्छेद 361A (28 दिसंबर 1978, 44वां संशोधन): संसद और विधानसभाओं की कार्यवाही के प्रकाशन को संरक्षण, जो प्रेस की निष्पक्ष रिपोर्टिंग को बढ़ावा देता है।

अनुच्छेद 105 और 194 (26 जनवरी 1950): संसद और राज्य विधानसभाओं के विशेषाधिकार, जो प्रेस की सीमाओं को भी परिभाषित करते हैं।

1966 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का गठन हुआ, जो प्रेस की स्वतंत्रता और नैतिकता को संतुलित करने के लिए बनाया गया। लेकिन 1975 के आपातकाल में प्रेस पर सेंसरशिप ने 250 से अधिक पत्रकारों को जेल में डाल दिया और 70 से ज्यादा अखबारों पर प्रतिबंध लगा।

भविष्य के लिए सुझाव
प्रेस की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता को बचाने के लिए ठोस कदम जरूरी हैं। पहला, प्रेस काउंसिल को दंडात्मक शक्तियां दी जानी चाहिए ताकि यह नैतिकता सुनिश्चित कर सके। दूसरा, पत्रकारों की सुरक्षा के लिए एक राष्ट्रीय कानून बनाया जाए, जिसमें हमलावरों के खिलाफ सख्त सजा का प्रावधान हो। तीसरा, डिजिटल मीडिया नियमों को पारदर्शी बनाया जाए ताकि सेंसरशिप के नाम पर स्वतंत्रता का दमन न हो। चौथा, गलत सूचना से लड़ने के लिए जन जागरूकता और तथ्य-जांच अभियानों को बढ़ावा दिया जाए।

निष्कर्ष: लोकतंत्र का प्रहरी
भारतीय प्रेस ने औपनिवेशिक दमन से लेकर डिजिटल क्रांति तक एक लंबा सफर तय किया है। यह न केवल खबरों का माध्यम है, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक सपनों का प्रतिबिंब भी है। लेकिन इसे गलत सूचना, कॉर्पोरेट हितों और सरकारी दबाव से बचाने की जिम्मेदारी हम सबकी है। प्रेस की आजादी सिर्फ पत्रकारों का अधिकार नहीं, बल्कि हर नागरिक की ताकत है। इसे संजोना और मजबूत करना हमारा साझा दायित्व है।

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